दिल्ली हाईकोर्ट ने एससी/ एसटी (अत्याचार की रोकथाम) अधिनियम की धारा 4 के तहत उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का निर्देश दिया है, जिन्होंने एक दलित व्यक्ति से हुए दुर्व्यवहार और उसके उत्पीड़न की शिकायत मिलने के बाद भी जानबूझकर एफआईआर दर्ज नहीं की थी। ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए ट्रायल कोर्ट को निर्देश देते हुए न्यायमूर्ति सुरेश कैत की एकल पीठ ने कहा कि पीड़ित दलित व्यक्ति न्याय पाने के लिए दर-दर भटकता रहा। इस मामले ने दिल्ली पुलिस के बहरेपन की पराकाष्ठा का उदाहरण दिया है, विशेष रूप से संबंधित थाने के एस.एच.ओ. के मामले में। वर्तमान आपराधिक अपील एससी और एसटी (अत्याचार की रोकथाम ) संशोधन अधिनियम, 2015 की धारा 14 के साथ ही आपराधिक प्रक्रिया दंड संहिता की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें पांच जून 2018 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, साकेत कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को रद्द करने की मांग की गई थी। एक निपुण अंतर्राष्ट्रीय घुड़सवार अपीलकर्ता ने कोर्ट का रुख किया करते हुए बताया कि उसे लगातार परेशान किया गया और आपराधिक धमकी दी गई क्योंकि उसका संबंध अनुसूचित जाति से है। उसने बताया कि प्रतिवादी विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक-आर्थिक और अभिजात वर्ग की पृष्ठभूमि से संबंधित थे। उसे जातिवादी शब्द कहते हुए शारीरिक रूप से प्रत्याड़ित किया,धमकाया और उससे गाली-गलौच किया। प्रतिवादियों ने एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया और याचिकाकर्ता पर एसिड हमले की साजिश भी रची। वहीं याचिकाकर्ता के प्रशिक्षक और इस मामले में उसके वकील कपिल मोदी को भी यातना देने और मारने के लिए भी योजना बनाई। 22 अप्रैल 2018 को, कपिल मोदी ने फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की। इस शिकायत में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ''मेरे अनुसूचित जाति के छात्र प्रशांत (उर्फ प्रवीण कुमार) पर एसिड अटैक की योजना'' बनाई गई है। हालांकि पुलिस ने उक्त शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की। इसके बाद एक प्रतिवादी ने अपीलकर्ता को फोन किया और शिकायत दर्ज करने के लिए उसे धमकाया। साथ ही कहा कि वह याचिकाकर्ता की पिटाई पुलिस से करवा देगा। अपनी जान और सुरक्षा के डर से अपीलकर्ता 29 अप्रैल 18 को उसी फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने गया। लेकिन पुलिस अधिकारियों ने उसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया और उसे वापिस भेज दिया। अत्यधिक संकट में अपीलकर्ता ने ट्वीट करके प्रधानमंत्री और दिल्ली पुलिस के आयुक्त से न्याय दिलाने में मदद की गुहार लगाई। 11 मई 2018 को अपीलार्थी को पुलिस आयुक्त से एक ई-मेल प्राप्त हुआ,जिसमें विशेष पुलिस आयुक्त (दक्षिणी रेंज) को निर्देश दिया गया था कि वह अपीलकर्ता की शिकायत पर आवश्यक कार्रवाई करे। पुलिस और अन्य अधिकारियों की निष्क्रियता के कारण 14 मई 2018 को अपीलकर्ता ने साकेत कोर्ट में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत एक आवेदन दायर किया। अपीलकर्ता के दुःख को बढ़ाते हुए उक्त मजिस्ट्रेट ने पुलिस को एक्शन टेकन रिपोर्ट दायर करने का निर्देश देते हुए मामले की सुनवाई दो माह के लिए टाल दी। इस आदेश से परेशान होकर अपीलार्थी ने एक आवेदन दिया ओर कहा कि उसके मामले में जल्द सुनवाई की तारीख दी जाए परंतु मजिस्ट्रेट ने मौखिक रूप से उस आवेदन को खारिज कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता ने पुलिस आयुक्त के साथ-साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश को भी पत्र लिखा कि कैसे अधीनस्थ अदालतें दलितों को न्याय प्रदान करने की अनदेखी कर रही हैं। उसके बाद अपीलकर्ता ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष शिकायत दायर की। साथ ही बताया कि पुलिस और मजिस्ट्रेट ने एससी/ एसटी अधिनियम की धारा 4 के तहत अपना कर्तव्य नहीं निभाया है। इसके बाद 05 जून 2018 को संबंधित एएसजे ने आवेदक के आवेदन को एससी/ एसटी अधिनियम की धारा 4 के तहत खारिज कर दिया। अपीलकर्ता के लिए पेश होते हुए कपिल मोदी ने तर्क दिया कि संबंधित एएसजे ने एससी और एसटी अधिनियम की धारा 5 और 4 रिड विद धारा 15 ए (8) (सी) रिड विद रूल्स 1995 के रूल 5 व 7 के तहत निर्धारित अपने कर्तव्यों की पूरी तरह से उपेक्षा व अनादर किया है। वहीं सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्देश जारी किए थे,उनका भी जानबूझकर पालन न करते हुए अनादर किया गया। उक्त अधिनियम की धारा 4 (2) (बी) में कहा गया है कि-''यह लोक सेवक का कर्तव्य है कि वह इस अधिनियम और अन्य संबंधित प्रावधानों के तहत शिकायत या पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज करे और इस अधिनियम के उपयुक्त धाराओं के तहत इसे पंजीकृत करे।'' उन्होंने यह भी बताया कि निचली अदालत के दोनों पीठासीन अधिकारी न्यायिक कर्तव्यों का विवेकपूर्ण ढंग से निर्वहन करने में विफल रहे हैं। न ही वह कानून के इरादे के प्रति संवेदनशील थे और इसलिए गलत आदेश पारित कर दिए। अपीलकर्ता की तरफ से पेश हुए कपिल मोदी के प्रतिनिधित्व पर आपत्ति करते हुए राज्य के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने कभी भी फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में कोई शिकायत दर्ज नहीं की। बल्कि 31 मई 2018 को आयुक्त कार्यालय से शिकायत आई थी। राज्य ने आगे प्रस्तुत किया कि शिकायत निराधार थी क्योंकि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत प्रथम दृष्टया मामला नहीं बन रहा था। वहीं उस शिकायत को देखकर ऐसा लग रहा था कि वह प्रतिवादियों द्वारा लगाए गए आरोपों का मुकाबला करने के लिए बाद में बचाव के लिए दायर की गई थी। अंत में राज्य की तरफ से यह तर्क दिया गया था कि वर्तमान मामले में जिन पुलिस अधिकारियों के नाम लिए गए हैं उन्होंने जानबूझर उपेक्षा नहीं की थी। क्योंकि कथित घटना के समय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश थे कि अत्याचार पर रोकथाम के लिए एसटी/ एससी अधिनियम के तहत केस दर्ज करने से पहले जांच की जाए। अपने आदेश की शुरुआत में ही अदालत ने धारा 15 के तहत वर्तमान मामले में कपिल मोदी की उपस्थिति पर आपत्ति करने वाले तर्क को खारिज कर दिया। साथ ही कहा कि दलित मानवाधिकार पर राष्ट्रीय अभियान द्वारा जारी एक पत्र में कपिल मोदी के योगदान को मान्यता दी है। साथ ही आईडीडीएल प्रतियोगिता मंच के माध्यम से दलितों के लिए ओलंपिक स्पोर्ट ऑफ ड्रेसेज को भी सुलभ बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान को इंटरनेशनल ड्रेसेज डेवलपमेंट लीग ने भी सराहा है। अदालत ने कहा कि- 'उक्त पत्र में आगे कहा गया है कि भारत में दलित पुरुषों और लड़कों को घोड़े की सवारी करने के लिए पीटा जाता है और उनकी हत्या कर दी जाती है। दलित घुड़सवारों के लिए समानता के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करने में श्री कपिल मोदी और आईडीडीएल के योगदान को एनसीडीएचआर ने भी बहुत सराहा है।' इसलिए अदालत ने वर्तमान मामले में अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व करने के लिए श्री मोदी को सक्षम पाया है। मामले के तथ्यों को ध्यान में रखने के बाद, अदालत ने कहा कि- 'अपीलकर्ता के जीवन को एक खतरा आने वाला था। अपने जीवन के इस खतरे की उचित आशंका के कारण उसने अपनी मानसिक शांति खो दी और कथित आरोपी व्यक्तियों के एसिड हमले के डर से वह पूरी तरह से परेशान हो गया था। इसके अलावा यह भी एक उचित और प्रमाणिम विश्वास था कि इलेक्ट्रॉनिक सबूत नष्ट किए जा सकते हैं या उनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है।' अदालत ने यह भी कहा कि सुभाष काशीनाथ महाजन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, प्रारंभिक जांच 7 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए। जबकि वर्तमान मामले में 59 दिनों के बाद एसीपी ने 18 जून 2018 को अपनी जांच रिपोर्ट पेश की थी। इसलिए अदालत ने कहा कि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने में प्रतिबंध था परंतु अन्य अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने के लिए कोई प्रतिबंध या रोक नहीं थी। अदालत ने यह भी कहा कि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत आने वाले आरोपों के लिए पुलिस स्टेशन फतेहपुर बेरी का एसएचओ एससी/एसटी एक्ट की धारा 4 (1) और 4 (2) के तहत अपने कर्तव्य को निभाने और शिकायत पर विचार करने के लिए बाध्य था। हालांकि वह ऐसा करने में विफल रहा। इसके अलावा निचली अदालतों ने भी उपरोक्त तथ्यों की अनदेखी की है।
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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020
दलित व्यक्ति से दुर्व्यवहार व उसका उत्पीड़न करने की शिकायत पर FIR दर्ज न करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट ने दिए कार्रवाई के निर्देश
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