सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दूरसंचार विभाग (डीओटी) के आवेदन, जिसमें 20 साल से अधिक समय में एजीआर से संबंधित बकाया का निपटान करने की अनुमति लेने की मांग की गई है, उस पर विचार करते हुए टेलीकॉम कंपनियों को अपने वित्तीय दस्तावेज प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने दूरसंचार कंपनियों के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए डीओटी को समय दिया। केस जुलाई के तीसरे सप्ताह के दौरान सुनवाई के लिए लिया जाएगा। सुनवाई के दौरान, पीठ ने सुरक्षा और गारंटी के बारे में पूछा जो बकाया भुगतान सुनिश्चित करने के लिए दूरसंचार कंपनियों से मांगी जा सकती है। वोडाफोन आइडिया की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा कि इसने पहले ही डीओटी को 7,000 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया है। उन्होंने कहा कि 10,000 करोड़ रुपये से अधिक की बैंक गारंटी डीओटी के पास है, जिसे सिक्योरिटी माना जाना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि 20 साल से अधिक की किश्तों में भुगतान AGR की बकाया राशि को चुकाने का एकमात्र तरीका है। उन्होंने कहा, "कंपनी को कमाना और भुगतान करना है, और यही एकमात्र तरीका है।" पीठ ने यह कहते हुए जवाब दिया कि वोडाफोन एक "बड़ी विदेशी कंपनी" है और उन्हें कुछ डाउन पेमेंट करना होगा। न्यायमूर्ति एम आर शाह ने कहा, "आपको कुछ राशि जमा करनी चाहिए। सरकार को जनता के लिए इस धन की आवश्यकता है, विशेष रूप से महामारी के दौरान।" टाटा टेलीसर्विसेज की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी दातार ने कहा कि उनके मुवक्किल ने 37000 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। उन्होंने कहा कि महामारी ने कंपनी की आय को बुरी तरह प्रभावित किया है। भारती एयरटेल की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ एएम सिंघवी ने कहा कि उनके मुवक्किल ने पहले ही 21000 करोड़ रुपये में से 18,000 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया है। उन्होंने कहा कि डीओटी के पास 10,800 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी लंबित है। यह मुद्दा गैर-दूरसंचार स्रोतों से राजस्व को शामिल करने के लिए 'एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू' (एजीआर) की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट के अक्टूबर 2019 के फैसले से भी उठा, जिसके परिणामस्वरूप टेलीकॉम कंपनियों को दूरसंचार लाइसेंस के उपयोग के लिए 1.42 लाख करोड़ रुपये से अधिक की देनदारी का सामना करना पड़ा। मार्च में, DoT ने एक आवेदन दायर कर टेलीकॉम कंपनियों को 20 साल से अधिक की अवधि में बकाया राशि का निपटान करने की अनुमति देने की मांग की थी। केंद्र ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि दूरसंचार विभाग (DoT) ने गैर-दूरसंचार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, (जैसे गेल ) के खिलाफ समायोजित सकल राजस्व की 4 लाख करोड़ रुपये की 96 प्रतिशत राशि को वापस लेने का फैसला किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अक्टूबर 2019 के फैसले में ये कहा था। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस एमआर शाह की बेंच को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि "हमने एक निर्णय लिया है क्योंकि वे आम जनता को टेलीकॉम सेवाएं प्रदान करने के व्यवसाय में नहीं हैं, हम इन PSU के 96% से बकाया की मांग वापस ले रहे हैं।"
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गुरुवार, 18 जून 2020
टेलीकॉम कंपनियो से अपने वित्तीय दस्तावेज़ जमा करने को कहा , सुप्रीम कोर्ट
पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र पर की गई रिपोर्टिंग में गलत बयान छापने का आरोप ,उत्तर प्रदेश पुलिस ने 'द स्क्रॉल' की पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ दर्ज की एफआईआर
वेबसाइट स्क्रॉल डॉट इन की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस में एफआईआर दर्ज कराई गई है। शर्मा ने लॉकडाउन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के एक गांव की हालत पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। रामनगर पुलिस थाने में एफआईआर दज कराने वाली माला देवी ने आरोप लगाया है कि सुप्रिया शर्मा ने अपनी रिपोर्ट में उनके बयान को गलत तरीके से प्रकाशित किया है और झूठे दावे किए हैं,पुलिस ने शर्मा के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के संबंधित प्रावधानों के साथ आईपीसी की धारा 501 (ऐसे मामलों का प्रकाशन या उत्कीर्णन, जो मानहानिकारक हों) और धारा 269 (लापरवाही, जिससे खतरनाक बीमारी के संक्रमण को फैलाने की आशंका हो) के तहत मामला दर्ज किया है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लॉकडाउन के प्रभावों पर आधारित अपनी रिपोर्ट में, जिसका शीर्षक था- प्रधानमंत्री के गोद लिए गांव में लॉकडाउन के दौरान भूखे रह रहे लोग, सुप्रिया शर्मा ने माला के बयान को प्रकाशित किया था, जो कि कथित रूप से घरेलू कर्मचारी हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि माला को लॉकडाउन के दौरान बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा, उन्हें राशन की कमी तक पड़ गई। हालांकि, 13 जून की एफआईआर में माला देवी ने दावा किया है कि वह घरेलू कर्मचारी नहीं हैं और उनकी टिप्पणियों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने दावा किया कि वह वाराणसी की नगरपालिका में ठेके पर सफाई कर्मी हैं, और उन्होंने लॉकडाउन के दौरान किसी भी संकट का सामना नहीं किया। उन्हे भोजन भी उपलब्ध था। माला ने कहा, " शर्मा ने मुझसे लॉकडाउन के बारे में पूछा; मैंने उन्हें बताया कि न तो मुझे और न ही मेरे परिवार में किसी को कोई समस्या है।" एफआईआर में माला देवी कहती हैं, "यह कहकर कि मैं और बच्चे भूखे हैं, सुप्रिया शर्मा ने मेरी गरीबी और मेरी जाति का मजाक उड़ाया है। उन्होंने समाज में मेरी भावनाओं और मेरी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है।" माला ने शर्मा और स्क्रॉल के एडिटर इन चीफ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी। स्क्रॉल डॉट इन ने हालांकि दावा किया है कि माला देवी की टिप्पणियों को "सटीकता" के साथ रिपोर्ट किया गया है और एफआईआर स्वतंत्र पत्रकारिता को "डराने और चुप कराने" का प्रयास है। स्क्रॉल एडिटोरियल ने वेबसाइट पर प्रकाशित एक बयान में कहा, "स्क्रॉल डॉट इन ने 5 जून, 2020 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के डोमरी गांव की माला का साक्षात्कार किया। उनके बयान को आलेख में सटीकता के साथ रिपोर्ट किया गया। स्क्रॉल डॉट इन लेख का समर्थन करता है, जिसे प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र से रिपोर्ट किया गया है। यह एफआईआर COVID-19 लॉकडाउन के दौरान कमजोर समूहों की स्थितियों पर रिपोर्टिंग करने की कीमत पर स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने और चुप कराने का एक प्रयास है।
शनिवार, 6 जून 2020
अब मोबाइल करेगा मरीजों की हेल्प
भोपाल. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल (Bhopal) में बढ़ते कोरोना इंफेक्शन पर स्वास्थ्य विभाग अब चौकन्ना हो गया है. इसके लिए एक नई व्यवस्था तैयार की जा रही है. अब एक क्लीक में मरीज़ को उसके जरूरत का अस्पताल मिल जाएगा. अब शहर के हर अस्पताल की स्वास्थ्य विभाग (Helath Department) मैपिंग कर रहा है ताकि लोगों को इनके घर के पास ही मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध हो सके. सही समय पर सही इलाज लोगों को मिले और इसके लिए इन्हें ज्यादा दूर भी ना जाना पड़े इस मकसद के साथ स्वास्थ्य विभाग काम कर रहा है. इसके तहत अब लोगों को मेडिकल संबंधित जानकारी उनके मोबाइल पर उपलब्ध हो सके, ऐसी कोशिश की जा रही है.
बढ़ते कोरोना संक्रमण के कारण मरीज अस्पताल जाने से कतरा रहे हैं. हर छोटी-मोटी बीमारियों को लेकर मरीज इलाज के लिए परेशान हो रहे हैं. घर के बाहर निकलने में भी बच्चों और बुजुर्गों के साथ परिवार के अन्य सदस्यों को डर सता रहा है. आने वाले महीनों में सरकार यूं ही ज्यादा सतर्कता बरतने की लगातार अपील कर रही है. इस बात को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य विभाग अब नई स्ट्रेटरजी पर काम कर रहा है.
अफसर कर रहे केन्द्रों की जांच
विभाग का प्लान है कि शहर की घनी आबादी में संचालित हो रहे छोटे-अस्पतालों की व्यवस्थाएं दुरूस्त की जाए. एनएचएम के उप संचालक डॉ. पंकज शुक्ला ने बताया कि विभाग के अधिकारी यूपीएचसी, सिविल डिस्पेंसरी और संजीवनी क्लीनिक का निरीक्षण कर रहे हैं. यहां के वर्किंग प्रोटोकॉल के बारे में जानकारी बटोर रहे हैं. इस नई व्यवस्था के जरिए लोगों को नजदीकी फीवर क्लीनिक की जानकारी उनके मोबाइल पर ही उपलब्ध हो सकेगी. स्वास्थ्य विभाग के अफसर कोरोना के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए स्वास्थ्य मंत्री के निर्देशानुसार काम कर रहे हैं. अफसरों का ध्यान इस ओर भी है कि बारिश के मौसम में बीमारी किसी भी हाल में ज्यादा बढ़ने ना पाए. इसके लिए लोग शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सिविल डिस्पेंसरी और संजीवनी क्लीनिक में जाकर सामान्य उपचार, टीकाकरण परिवार कल्याण जैसी योजनाओं का लाभ ले सकेंगे.
ऐसे होगी मैपिंग
शहर के यूपीएचसी, सिविल डिस्पेंसरी और संजीवनी क्लीनिक के हर एक मरीज की समस्या को हल करने की विभाग रणनीती बना रहा है. इन संस्थाओं में ये देखा जा रहा है कि यहां फीवर क्लीनिक के लिए जारी किए गए प्रोटोकॉल के अनुसार काम हो रहा है या नहीं. एनएचएम के उप संचालक डॉ. पंकज शुक्ला के मुताबिक अब बारिश शुरू होने के बाद मौसमी बीमारियों के मरीज बढ़ेंगे. ऐसे में शहर के लोगों की पहली प्राथमिकता ये होगी की घर के नजदीक वाले अस्पतालों में इलाज मुहैया हो जाए ना की हर मामूली बीमारी के लिए सीधे बड़े सरकारी अस्पतालों की तरफ भागना पड़े. मरीजों की सुविधा के लिए विभाग चौकन्ना होकर तमाम व्यवस्थाएं करने में जुटा है. भोपाल सहित प्रदेश भर में संचालित सरकारी अस्पतालों की ज्योग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टम मैपिंग का काम पिछले साल मैप आईटी ने शुरू किया था, लेकिन बीच में ही ये काम कुछ कारणों से बंद हो गया था. अब कोरोना संकटकाल में आम लोगों को घर के नजदीकी स्वास्थ्य संस्थाओं की जानकारी मोबाइल पर मिल सकेगी. विभाग गूगल के जरिए मैपिंग करने में लगा है.
किसानों की सब्जियों को सरकारी गाड़ी से रौंदने वाला दारोगा सस्पेंड
प्रयागराज. जिले के घूरपुर थाने में तैनात एक दारोगा की करतूत का वीडियो सोशल मीडिया (Social Media) पर वायरल होने का सीएम योगी (CM Yogi) ने संज्ञान लेते हुए उसे सस्पेंड (suspend) करने के निर्देश दिए जिसके तुरंत बाद एसएसपी प्रयागराज (SSP Prayagraj) ने दारोगा को सस्पेंड करते हुए उसके खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू करने की भी संस्तुति कर दी है. बता दें कि दारोगा सुमित आनन्द द्वारा घूरपुर की साप्ताहिक सब्जी मंडी में सोशल डिस्टेंसिंग (social distancing) का पालन न होने पर सरकारी गाड़ी से किसानों की सब्जियों को रौंदे दिया गया था. मामले को संदेनशीलता से लेते हुए सीएम योगी ने दारोगा को तत्काल सस्पेंड करने और पीड़ित किसानों को मुआवजा देने का भी निर्देश दिया था.
किसानों को नुकसान की भरपाई करवाई गई
सीएम योगी के संज्ञान लेने के बाद एसएसपी प्रयागराज सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज ने बड़ी कार्रवाई करते हुए दारोगा को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया है. इसके साथ एसएसपी ने सीओ को मौके पर भेजकर किसानों को उनके नुकसान की भरपाई भी करायी है. फिलहाल 11 किसानों को मौके पर जाकर सीओ ने क्षतिपूर्ति दे दी है. इसके साथ अन्य किसानों को चिन्हित किया जा रहा है, जिन्हें उनके नुकसान के मुताबिक मुआवजा दिया जायेगा. एसएसपी ने दारोगा के कृत्य को गम्भीर मानते हुए हुए विभागीय कार्रवाई के भी आदेश दे दिए हैं. इसके साथ ही जनपदीय शाखा में दारोगा को न रखे जाने की भी एसएसपी की ओर से संस्तुति उच्च अधिकारियों को भेज दी गई है. एसएसपी सत्यार्थ अनिरुद्ध ने बताया कि दारोगा के वेतन से किसानों को हुए नुकसान की रिकवरी भी की जाएगी. दरअसल बुधवार और शुक्रवार के दिन ही घूरपुर में साप्ताहिक सब्जी मंडी लगनी तय थी.
शनिवार से खुलेंगे सभी सरकारी स्कूल, स्टूडेंट्स की रहेगी छुट्टी
मऊ. वैश्विक महामारी कोरोना वायरस (Pandemic coronavirus) के संक्रमण से बचाव के लिए लागू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन (Lockdown) के बाद अब अनलॉक (Unlock 1.0) होना शुरू हो चुका है. ऑफिस, दुकाने उद्योग इत्यादि खोले जाने के बाद अब शनिवार से सभी सरकारी स्कूल-कॉलेज भी खोलने के आदेश दे दिए गए हैं. जिला बेसिक शिक्षा विभाग (District Basic Education Department) के निर्देशानुसार तत्काल प्रभाव से नियमित रूप से प्रधानाध्यापक एवं सभी शिक्षक विद्यालय में अनिवार्य रूप से उपस्थित होकर कार्य संपादित करेंगे. जबकि बच्चों की छुट्टी रहेगी और विद्यालय में शिक्षण कार्य स्थगित रहेगा.शासन के निर्देशों के अनुपालन में खोले गए स्कूल
जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ओपी त्रिपाठी ने News 18 से बातचीत में कहा कि शासन के निर्देशों के तहत विद्यालयों में उपस्थिति को अनिवार्य किया गया है. इसमें किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी. विद्यालयों का औचक निरीक्षण किया जाएगा. यदि कोई गैर-हाजिर मिलता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी. उन्होंने बताया कि अभी छात्रों के लिए स्कूल नहीं खोले गए हैं लेकिन ऑनलाइन शिक्षण और ई-पाठशाला संचालित रहेगी.
उन्होंने बताया कि शासन के निर्देश व जिलाधिकारी ज्ञान प्रकाश त्रिपाठी के आदेश के अनुपालन में सभी राजकीय, परिषदीय व सहायता प्राप्त कक्षा 01 से 08 तक के सभी विद्यालय खुलेंगे. तत्काल प्रभाव से नियमित रूप से प्रधानाध्यापक एवं सभी शिक्षक विद्यालय में अनिवार्य रूप से उपस्थित होकर निर्देशानुसार कार्य संपादित करेंगे. बच्चों की छुट्टी रहेगी, विद्यालय में शिक्षण कार्य स्थगित रहेगा. लेकिन ऑनलाइन शिक्षण व ई-पाठशाला संचालित रहेगी. इसके अलावा मिड-डे मील संबंधित कार्य भी संपादित होंगे जिसके अंतर्गत छात्रों के अभिभावक के खाते में कन्वर्जन मनी भेजा जाएगा.
शुक्रवार, 5 जून 2020
प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान लेने के बाद अब मामले के मूल याचिकाकर्ताओं ने अदालत की सहायता करने के लिए हस्तक्षेप आवेदन दिया
पिछले मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने COVIDलॉकडाउन के बाद देश भर में फंसे प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर स्वत संज्ञान लिया था,जिसके बाद एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज और हर्ष मंदर के अलावा, आईआईएम-अहमदाबाद के पूर्व डीन जगदीप एस. छोकर ने इस मामले में न्यायालय की सहायता करने की अनुमति मांगी है। इस मामले में हस्तक्षेप करने के आवेदन दायर करते हुए मांग की गई है कि ''आवेदक उनके द्वारा दायर पूर्व में दायर की जनहित याचिकाओं को रिकॉर्ड पर रखकर इस मामले में अदालत की सहायता करना चाहते हैं। यह जनहित याचिकाएं ''देश में हुए व्यापक लाॅकडाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा के संबंध में दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था चूंकि लाॅकडाउन के बारे में कोई पूर्व सूचना नहीं दी गई थी और जिसने पूरे देश में दहशत पैदा कर दी थी। वहीं इसके कारण एकदम से लाखों प्रवासी श्रमिकों की नौकरियां और रोजगार का साधना चला गया था।'' पहली याचिका भारद्वाज और मंडेर की ओर से दायर की गई थी, जिसमें मांग की गई थी कि केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया जाए कि वह संयुक्त रूप से सभी प्रवासी श्रमिकों को मजदूरी/न्यूनतम मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करें। भले ही यह मजदूर किसी भी संस्थान, ठेकेदार या स्वरोजगार से जुड़े हों। चूंकि लाॅकडाउन के कारण वह काम करने और पैसा कमाने में असमर्थ हैं। दूसरी याचिका छोकर ने दायर की थी। जिसमें मांग की गई थी कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी प्रवासी श्रमिक अपने गांवों व घरों में सुरक्षित पहुंच जाए। इसके उनसे परिवहन का किराया न लिया जाए और यात्रा के दौरान उनको पर्याप्त भोजन आदि उपलब्ध कराया जाए। यह भी बताया गया कि ''उपर्युक्त दोनों याचिकाओं का संक्षिप्त सुनवाई के बाद निस्तारण कर दिया गया था।'' यह भी कहा गया कि ''चूंकि इस माननीय न्यायालय ने अब प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर स्वत संज्ञान लिया है। इसलिए आवेदक विनम्रतापूर्वक अदालत से हस्तक्षेप करने की मांग करते हैं। वह उन विभिन्न मुद्दों के संबंध में अदालत की सहायता करना चाहते है,जिनका सामना लाॅकडाउन शुरू होने के बाद से यह प्रवासी श्रमिक कर रहे हैं। आवेदक जिम्मेदार और प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता व इस देश के शिक्षाविद हैं और लॉकडाउन के बाद से प्रवासी श्रमिकों के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं।'' 21 अप्रैल को शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने इस मामले में दायर एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए कहा था कि इस समय देश खुद असामान्य स्थिति में है और इसमें शामिल हितधारक अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की कोशिश कर रहे हैं। इस जनहित याचिका में मांग की गई थी कि COVID19 महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के कारण प्रवासी श्रमिक गंभीर तनाव में है,इसलिए उनको मजदूरी का भुगतान किया जाए। अदालत ने रिट याचिका का निपटारा करते हुए संक्षेप में कहा था कि '' सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने एक स्थिति रिपोर्ट दायर की है और कहा है कि प्रवासी श्रमिकों के मुद्दों को संबोधित करने के लिए विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं। उन्होंने आगे यह भी तर्क दिया था कि जमीनी धरातल पर इन मुद्दों को निपटाने के लिए एक हेल्पलाइन नंबर प्रदान किया गया है। वहीं जब भी कोई शिकायत प्राप्त होती है तो अधिकारी तुरंत उस मामले में सहायता करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे सामने रखी गई सामग्री को ध्यान में रखते हुए हम प्रतिवादी-भारत सरकार को कह रहे हैं कि वह इस तरह के मामलों पर स्वयं विचार करें। वहीं याचिका में उठाए गए मुद्दों को निपटाने के लिए वह सभी कदम उठाए,जो उनको उपयुक्त लगते हैं।'' दूसरी जनहित याचिका के संबंध में अदालत ने एसजी की दलीलों को तरजीह देते हुए कहा था कि, ''इस याचिका में जो राहत मांगी गई है उसके लिए पर्याप्त रूप से मंजूरी दे दी गई है क्योंकि सरकार ने 29 अप्रैल 2020 को उन श्रमिकों की आवाजाही के मामले को स्वीकार कर लिया था,जो प्रवासी श्रमिक ,तीर्थयात्री, पर्यटक और छात्र हैं और विभिन्न स्थानों पर फंसे हुए थे और एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा पा रहे थे।'' शीर्ष अदालत ने कहा था कि,"श्री तुषार मेहता ने यह भी कहा था कि रिट याचिका दायर करने से पहले ही उस पर चिंतन चल रहा था और सरकार इस पर विचार कर रही थी। एसजी ने यह भी बताया था कि बाद में 01 मई 2020 को एक आदेश जारी किया गया था जिसमें रेलवे ने प्रवासी श्रमिकों को उनके गांवों या राज्यों में पहुंचाने के लिए ''श्रमिक स्पेशल''ट्रेन चलाने का फैसला भी किया था। इसके बाद फंसे हुए व्यक्तियों की पूर्वोक्त श्रेणी की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकार ने इन फंसे हुए प्रवासी श्रमिकों की कठिनाई को कम करने के हर संभव कदम उठाए हैं।'' कोर्ट ने पांच मई को याचिका का निपटारा करते हुए कहा था कि "इस तरह के परिवहन के लिए आवश्यक तौर-तरीके रेलवे के सहयोग से संबंधित राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लागू किए जाने हैं। जहां तक श्रमिकों से रेलवे टिकट की राशि का 15 प्रतिशत वसूलने की बात है तो उस संबंध में यह अदालत अनुच्छेद 32 के तहत कोई भी आदेश जारी नहीं करेगी। यह संबंधित राज्य/रेलवे का काम है कि वह संबंधित दिशानिर्देशों के तहत आवश्यक कदम उठाए। इस रिट याचिका में मांगी गई राहत को पूरा कर दिया गया है। इसलिए हम मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के लिए वकील द्वारा उठाए जाने वाले अन्य मुद्दों पर विचार करके कोर्ट इस रिट याचिका के दायरे का विस्तार नहीं कर सकती हैं। ऐसे में अब इस याचिका को लंबित रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।'' न्यायालय ने केंद्र व सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को स्वत संज्ञान मामले में नोटिस जारी करते हुए 26 मई को कहा था कि ''अखबारों की रिपोर्ट और मीडिया रिपोर्ट में लगातार यह बताया जा रहा है कि प्रवासी मजदूर लंबी-लंबी दूरी पैदल पूरी कर रहे हैं या साइकिल आदि से चलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इन रिपोर्ट में इन मजदूरों की दुर्भाग्यपूर्ण और दयनीय स्थिति दिखाई जा रही है। इतना ही नहीं आज भी प्रवासी श्रमिकों की समस्याएं जारी हैं क्योंकि बहुत सारे श्रमिक सड़क,रेलवे स्टेशन,हाईवे या राज्यों की सीमाओं पर फंसे हुए हैं। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार बिना कोई पैसा वसूले तुरंत इनके लिए पर्याप्त परिवहन,भोजन और आश्रय की व्यवस्था करें।'' इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भी प्रवासी श्रमिकों के मुद्दों पर केंद्र सरकार से कई सवाल किए। पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ''सबसे पहले व्यक्ति की अपनी जेब में पैसा होना चाहिए। किसी भी प्रवासी से कोई किराया नहीं लिया जाना चाहिए। इस किराए को वहन करने के लिए राज्यों के बीच कुछ व्यवस्था होनी चाहिए।'' पीठ ने पूछा, ''जिन लोगों को वापिस उनके घर भेजा जा रहा है क्या किसी भी स्तर पर उनसे परिवहन का किराया मांगा जा रहा है? एफसीआई के पास अतिरिक्त खाद्य पदार्थ उपलब्ध है, ऐसे में क्या इन लोगों को उस समय भोजन की आपूर्ति की जा रही है,जब यह अपने घर जाने के लिए अपनी बारी आने की प्रतिक्षा करते हैंै?'' पीठ ने यह भी पूछा कि ''प्रवासियों को उनके घर वापिस भेजने के लिए आपको कितने समय की जरूरत है? वही इन लोगों के लिए भोजन और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए क्या निगरानी तंत्र बनाया गया है?''
COVID-19 रोगियों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों द्वारा शुल्क वसूलने की सीमा तय करने वाली याचिका पर SC ने केंद्र से जवाब मांगा
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उस जनहित याचिका में केंद्र की प्रतिक्रिया मांगी है जिसमें कोरोना के रोगियों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों द्वारा शुल्क वसूलने की सीमा तय करने और क्वारंटाइन व संक्रमण के बाद की सुविधाओं के लिए अस्पतालों में दाखिल के प्रयोजनों के लिए पारदर्शी तंत्र बनाने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता अविषेक गोयनका ने अदालत को बताया कि निजी अस्पताल COVID रोगियों से अत्यधिक शुल्क वसूल रहे हैं, जिससे यह अधिकांश रोगियों के लिए दुर्गम हो जाता है, जिससे अनुच्छेद 14 और 21 प्रभावित होते हैं।जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि कोरोना वायरस रोगियों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क पर ऊपरी सीमा लगाने के लिए केंद्र की ओर प्रतिक्रिया दर्ज करें। कोर्ट ने एक सप्ताह के बाद मामले को सूचीबद्ध किया है। याचिकाकर्ता का कहना है कि अस्पतालों में दाखिले की मनमानी प्रक्रिया रोगियों के स्तर को आधार बनाती है और जो इलाज का खर्च नहीं उठा सकते हैं वो अलग रखे जाते हैं।याचिका में निम्नलिखित प्रार्थनाएं हैं- • " उत्तरदाताओं और बीमा कंपनियों को तुरंत, पूर्ण दावों, जो कि सरकार द्वारा निर्दिष्ट दरों के अनुसार हैं, देने के लिए उचित रिट/ निर्देश जारी करें। • उत्तरदाताओं को मरीज की पसंद और सामर्थ्य के अनुसार, कोविद -19 संक्रमण के मामले में निजी अस्पतालों की सुविधा के तुरंत लाभ के लिए तंत्र तैयार करने और विज्ञापित करने के लिए उचित रिट / दिशा- निर्देश जारी करें, • उत्तरदाताओं को COVID- 19 क्वारंटाइन के लिए तुरंत निजी सुविधा प्राप्त करने के लिए तंत्र बनाने और विज्ञापन देने के लिए उचित रिट/ दिशा- निर्देश जारी करें" इस पृष्ठभूमि में, याचिका कई समाचार रिपोर्टों पर निर्भर है जो यह सुझाव देते हैं कि बीमा कंपनियों ने कई लोगों के बीमा दावों को रोक दिया है और काउंटरों पर उनके लिए कैशलेस सुविधाओं से इनकार कर रहे हैं। याचिकाकर्ता का दावा है कि इस मुश्किल समय में कई नागरिकों को परेशानी में पहुंचा दिया है। "ये असाधारण समय हैं और कई नागरिकों को बिना किसी आय के छोड़ दिया गया है। उनकी बचत को भी नुकसान हुआ है। यदि दाखिले के दौरान कैशलेस की सुविधा नहीं दी जाती है, तो पर्याप्त नकदी के बिना रोगियों को अधर छोड़ दिया जाएगा और उन्हें निजी अस्पतालों में प्रवेश से सुसज्जित होने के बावजूद घटिया सरकारी सुविधाएंलेने के लिए मजबूर किया जाएगा। इसी प्रकार यदि डिस्चार्ज के दौरान दावों का सही तरीके से निपटान नहीं किया जाता है, तो रोगी को अस्पताल से छोड़ा नहीं जाएगा, जब तक कि रोगी परिवार, शेष राशि का भुगतान नहीं करता है। याचिका में पश्चिम बंगाल सरकार के निजी अस्पतालों के लिए जो दरें तय करने का हवाला देते हुए कहा गया है कि केंद्र उक्त उद्देश्य के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाकर ऐसा कर सकता है। "सरकार को उन क्षेत्रों के लिए, जहां कोई नीति नहीं है, नीतियों को बनाने करने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। क्योंकि एक नीति की अनुपस्थिति अराजकता और भ्रम को बढ़ाती है। केंद्र सरकार के परिपत्रों में ऐसा कोई तंत्र नहीं है, जो नोडल विंडो की स्थापना का निर्देश देता हो जो पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार को निजी -क्वारंटाइन और / या अस्पताल की सुविधाओं के लिए निर्देशित कर सकते हैं। "
गुरुवार, 4 जून 2020
चल पड़ी ट्रेन में नन्ही बच्ची को दूध देने के लिए आरपीएफ जवान ने की बहुत मशक्कत,
बहराइच का रहने वालीं साफिया हाशमी दुधमुंही बेटी को लेकर बेलगांव से चली थीं लेकिन रास्ते में कहीं दूध नहीं मिला, भोपाल में जवान इंदर यादव ने की मदद
भोपाल: Lockdown: लॉकडाउन में पुलिस ज्यादती की कई तस्वीरें सामने आईं. पुलिस वालों पर भी हमले हुए. लेकिन भोपाल स्टेशन पर एक ऐसी तस्वीर सीसीटीवी कैमरों में कैद हुई जो भरोसा जगाए रखती है. आरपीएफ के एक जवान ने एक दुधमुंही भूखी बच्ची को दूध देने के लिए जबर्दस्त मशक्कत की.
घर पहुंचकर एक वीडियो जारी कर साफिया ने कहा ''हम बहराइच के रहने वाले हैं, हम बेलगांव से चले थे लेकिन रास्ते में मुझे कहीं दूध नहीं मिला. भोपाल में इंदर यादव जी ने मदद की. उनका बहुत-बहुत शुक्रिया. जो मैसेज उन्होंने इंदर यादव को भेजा उसमें लिखा था आप हमारी लाइफ के रियल हीरो हैं और आप जैसे लोगों की देश में बहुत जरूरत है. आपने ट्रेन रवाना होने से पहले बच्ची की मदद की. आपकी मदद से ही मेरी बच्ची मेरे साथ सकुशल घर लौट सकी है.''
मंगलवार, 2 जून 2020
सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 7 के बारे मे संक्षिप्त विवरण
सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 7 के बारे मे संक्षिप्त विवरण ( जानकारी )
धारा 7(1) :- जीवन की रक्षा एवं स्वतंत्रता से संबंधित
सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 7(1) के तहत माँग सकते हैं, जो लोक जन सूचना अधिकारी या केंद्रीय जन सूचना अधिकारी 48 घंटे में प्रदान की जाएगी । जीवन की रक्षा से संबंधित कुछ सूचनाएँ इस प्रकार है :-
1. पुलिस उत्पीड़न एवं हिंसा के विरुद्ध अधिकार
2. कैदी का इंटरव्यू देने का अधिकार
3. निशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार
4. निजता का अधिकार
5. शीघ्र विचारण का अधिकार
6. निष्पक्ष विचारण का अधिकार
7. कामकाजी महिलाओं के लैंगिक शोषण के विरुद्ध अधिकार
धारा 7(2) :- जीवन की रक्षा एवं स्वतंत्रता से संबंधित सूचना केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी सूचना देने में असफल रहते हैं तो उस आवेदन को नामंजूर कर दिया समझा जाएगा ।
धारा 7(3) (क) :- दस्तावेज के लिए अधिभारित शुल्क के बारे में 30 दिन के अंदर अगर लोक जन सूचना अधिकारी आवेदक को इसकी जानकारी नहीं देते हैं तो 30 दिन के बाद इसे अपवर्जित किया जाएगा
धारा 7(4) :- इस अधिनियम के अधीन अभिलेख या उसके किसी भाग तक पहुँच अपेक्षित है और ऐसा व्यक्ति, जिसको पहुँच उपलब्ध कराई जाने है । संवेदनात्मक रूप से निशक्त है, वहाँ यथास्थिति, केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य सूचना अधिकारी सूचना तक पहुँच को समर्थ बनाने के लिए सहायता उपलब्ध कराएगा जिसमें निरीक्षण के लिए सहायता सम्मिलित है, जो समुचित हो ।
धारा 7(5) :- इसके अधीन फीस युक्तियुक्त होगी और ऐसे व्यक्ति से, जो गरीबी रेखा के नीचे है, जैसा समुचित सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा, कोई फीस प्रभारित नहीं की जाएगी ।
धारा 7(6) :- लोक जन सूचना अधिकारी सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 6(1) के तहत 30 दिनों में सूचना उपलब्ध नहीं कराते हैं 30 दिन के बाद बिना भारित शुल्क के पूरी सूचना और दस्तावेज लोक जन सूचना अधिकारी मुफ्त में उपलब्ध कराएंगे
धारा 7(7) :- केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 11 के अधीन पर व्यक्ति (Third Party) द्वारा किए गए अभ्यावेदन को ध्यान में रखेगा ।
धारा 7(8) :- केंद्रीय जन सूचना अधिकारी या राज्य जन सूचना अधिकारी द्वारा को दिए गए आरटीआई आवेदन को अस्वीकृत करता है तो
(i) अस्वीकृति का कारण बताएगा ।
(ii) वह अवधि जिसके भीतर अस्वीकृति के विरुद्ध कोई अपील की जा सके
(iii)अपीलीय प्राधिकारी का नाम, पदनाम और पूर्ण पता देगा।
धारा 7(9) :- केंद्रीय जन सूचना अधिकारी या लोक जन सूचना अधिकारी किसी सूचना को उसी प्रारूप में उपलब्ध कराएगा जिसमें उसे माँगा गया है । जब तक कि लोक प्राधिकारी के स्रोतों को अननुपाती रुप से विचलित ना करता हो ।
प्रश्नगत अभिलेख की सुरक्षा या संरक्षण के प्रतिकूल ना हो ।
लाक डाउन में खुल रही फर्जी पत्रकारों की पोल!
लखनऊ। लाक डाउन में खुल रही फर्जी पत्रकारों की पोल! कोरोना वायरस महामारी से निपटने के लिए सरकार द्वारा लाक डाउन घोषित किया गया है! इस दौरान मिली छूट में अनिवार्य सेवा के अन्तर्गत पत्रकारों को भी शामिल किया गया है! इसी का लाभ उठाते हुए व्हाट्स एप ग्रुप बनाकर उसके ही परिचय पत्र ग्रुप एडमिन ने बड़ी मात्रा में यूपी के सभी जिलों में जारी करके फर्जी पत्रकारों की एक फौज खड़ी कर दी है, जो प्रशासनिक अफसरों तथा पुलिस के बीच अपना रौब झाड़ते हुए असली पत्रकारों के समक्ष मुसीबत बने हुए थे! कुछ माह पूर्व रायबरेली के ऊंचाहार में जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक ने नौ पर्जी पत्रकार दबोचकर उनके खिलाफ सूचना अधिकारी से रिपोर्ट दर्ज करवाई थी! इसके बाद मेरठ, नोएडा, बुलंदशहर आदि दर्जन भर जिलों में इसी प्रकार के व्हाट्स एपिए पत्रकार पकड़े गए! अब बिल्कुल ताजे मामले में मुजफ्फरनगर में पकड़े गए हैं फर्जी पत्रकार! एसएसपी अभिषेक यादव ने बताया कि मुजफ्फरनगर पुलिस के समक्ष फर्जी पत्रकारों की जानकारी संज्ञान में आई थी। जिस पर जिले के सभी पत्रकारों की जांच कराए जाने पर दो दर्जन फर्जी पत्रकार पकड़ में आए हैं। जिनके पास से बरामद परिचय पत्र में उल्लिखित कोई मीडिया संस्थान ही देश में नहीं कार्यरत है सबसे रोचक बात तो यह है कि सभी जिलों में पकड़े गए इन फर्जी पत्रकारों के पास जो परिचय पत्र बरामद हुए हैं, उनमें Delhi Crime, TV NEWS INDIA Fatehpur, INDIA न्यूज TV FTP"2", PMP इंडिया न्यूज चैनल, PMP India news, Zeenationaltv24, Zee India Express आदि ऐसे मीडिया कार्ड मिले हैं, जिनके पास सूचना मंत्रालय का कोई मान्यता प्रमाण पत्र ही नहीं है और पकड़े गए फर्जी पत्रकार अपने आकाओं से प्रशासन की कोई बात भी नहीं करा पाए! पुलिस महानिदेशक कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश शासन ने यूपी के सभी जिलों में पत्रकारों की व्यापक छानबीन के निर्देश दिए हैं। जिसमें कानपुर, उन्नाव, फतेहपुर, कौशाम्बी, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, इटावा, कन्नौज, उरई, हमीरपुर,जौनपुर,बनारस,आजमगढ आदि दो दर्जन से अधिक जिलों में प्रशासन ने असली पत्रकारों की लिस्ट तैयार करने में तेजी दिखाई है।
अभिनेता एवं सांसद सनी देओल द्वारा अभिनित विज्ञापन भ्रामक, कंपनी ने विज्ञापन बंद करने का किया कमिटमेंट
TV चेनल्स पर दिखाये जाने वाले राजेश मसाले के विज्ञापन पर आपत्ति जताते हुए भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI), मुम्बई को शिकायत में लिखा कि विज्ञापन में राजेश मसाले को भारत के सबसे टेस्टी मसाले बताया गया है किन्तु इस दावे के समर्थन में कोई डाटा नहीं दिखाया जा रहा है, ऐसी स्थिति में ये विज्ञापन भ्रामक प्रतीत होता है जिस पर रोक लगाई जानी चाहिए। शिकायत पर ASCI ने विज्ञापनदाता को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया। जवाब में मसाला कंपनी ने अपनी गलती स्वीकारते हुए इस विज्ञापन को वापस लेने का भरोसा दिलाया। साथियों, राष्ट्रीय स्तर की कंपनियां उपभोक्ताओं को ठगने के लिए इस तरह के भ्रामक विज्ञापन तैयार कराती हैं।
हमें इस तरह के विज्ञापनों से सावधान रहना चाहिए।
90% भारतीयों के दिमाग मै भूसा भरा है न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू
आप लोग रेल से कभी यात्रा किए है तो रेल गाड़ी मे व स्टेशन पर छोटे व स्थानीय कप मे चाय दी जाती है। रेल के कप मे भी चाय दी तो जहाँ तक चिह्न है,वहां तक नही देते।जनता व रेल दोनो को चूना लगता है।
(2) राजभाषा के नाम पर फर्जी प्रगति प्रतिवेदन अपवादों को छोड़कर भारत सरकार के हर कार्यलय से भेजा जा रहा है।इस प्रकार बिना कार्य किए वेतन लिया जा रहा है तथाआंकडो के
फर्जीबाड़ा हेतु कागज आदि का व्यय अलग से है। बताएं IRTC का टिकट on line केवल अंग्रेजी मे क्यों❓डाक घर से रजिस्ट्री स्पीड पोस्ट की रसीद अंग्रेजी मे क्यों❓कार्यालयों के विभिन्न कार्य अंग्रेजी मे क्यों❓ (3)आप लोग राज भाषा अधिनियम 1963 तथा राज भाषा नियम 1976 , राभाषा का वार्षक कार्यक्रम किसी कार्यालय मे जाकर पढ़ ले तो उल्लंघन देख कर भौंचक रह जाएंगे ।
(4) नोएडा = न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डेवलपमेंट अथारिटी। अब बताये कि यह स्थान बोधक कैसे है❓यह गौतमबुद्ध नगर का पर्याय कैसे है❓
(5)न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू का कथन-- 90% भारतीयों के दिमाग मै भूसा भरा है ,को आप किस आधार पर गलत कह सकते हैं ❓
विद्याधर पाण्डेय
(1) संरक्षक, सामाजिक संस्थाये समन्वय समिति , गाजियाबाद
(2)संरक्षक, भारतीय विधि,न्याय एवम् समाज,गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर
दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकारी कर्मचारियों को बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता न देने के मामले में केंद्र सरकार के निर्णय के खिलाफ खारिज की याचिका
दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकारी कर्मचारियों को बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता न देने के मामले में केंद्र सरकार के निर्णय के खिलाफ याचिका खारिज की दिल्ली हाईकोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जो केंद्र सरकार व दिल्ली सरकार के निर्णय के खिलाफ दायर की गई थी। इस याचिका में केंद्र सरकार के साथ-साथ दिल्ली सरकार के भी उस निर्णय को चुनौती दी गई थी, जिसमें सरकारी कर्मचारियों और पेंशनभोगियों को बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता न देने की बात कही गई थी।न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर की खंडपीठ ने कहा कि कानून में सरकार पर यह दायित्व ड़ाला गया है कि महंगाई भत्ते /महंगाई राहत में की गई वृद्धि का संवितरण समयबद्ध तरीके से करना होगा। अदालत ने यह भी कहा कि ऊपर बताए गए ऑल इंडिया सर्विसेज (महंगाई भत्ता) रूल्स के नियम 3 के तहत ही केंद्र सरकार को यह अधिकार भी मिला हुआ है कि वह उन शर्तों को तय कर सकती है, जिनके अधीन ही सरकारी अधिकारी इस महंगाई भत्ते को प्राप्त्त कर सकते हैं।अदालत ने यह आदेश एक जनहित याचिका में दिया है, जिसमें मांग की गई थी कि केंद्र और दिल्ली सरकार, दोनों के वित्त मंत्रालय को निर्देश जारी किया जाए ताकि सरकारी कर्मचारियों के बढ़े हुए महंगाई भत्ते को फ्रीज करने के संबंध में जारी अधिसूचना को वापस ले लिया जाए और मानदंडों के अनुसार इसे जारी कर दिया जाए। केंद्र सरकार के इस विवादित कार्यालय ज्ञापन में सूचित किया था कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों को दिया जाने वाला मंहगाई भत्ता और केंद्र सरकार के पेंशनभोगियों को दी जाने वाली महंगाई राहत का भुगतान नहीं किया जाएगा। यह महंगाई भत्ता/ मंहगाई राहत 1 जनवरी 2020 से देय था। यह भी कहा गया था कि 01 जुलाई 2020 और 01 जनवरी 2021 से देय महंगाई भत्ते और महंगाई राहत की अतिरिक्त किस्त का भी भुगतान नहीं किया जाएगा। हालांकि मौजूदा दरों पर महंगाई भत्ता और महंगाई राहत का भुगतान जारी रखा जाएगा। वहीं उक्त ओएम में यह भी कहा गया है कि 1 जुलाई 2021 से महंगाई भत्ता और महंगाई राहत की भविष्य की किश्त जारी करने का निर्णय जब भी सरकार द्वारा लिया जाएगा, उस समय महंगाई भत्ता और महंगाई राहत की दरें 1 जनवरी 2020 से प्रभावी होंगी, जिसके बाद 1 जुलाई 2020 और 1 जुलाई 2021 को देय भत्ते को भी उसी अनुसार बहाल कर दिया जाएगा। याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष निम्नलिखित तर्क दिए थे- ए-केंद्र सरकार के कर्मचारियों और केंद्र सरकार के पेंशनरों को ऑल इंडिया सर्विसेज (डीए) रूल्स 1972 के तहत बढ़ाया गया महंगाई भत्ता/महंगाई राहत प्राप्त करने का एक निहित अधिकार है। बी- COVID19 महामारी को डीए को रोकने का एक कारण बताया गया है, परंतु उसके बावजूद भी यह आदेश आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित नहीं किया गया है। सी-सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत राष्ट्रपति द्वारा घोषित वित्तीय आपातकाल के दौरान ही उप-अनुच्छेद 4 (ए) (i) के आधार पर - राज्य के मामलों के संबंध में काम करने वाले सभी या किसी भी वर्ग के व्यक्तियों के वेतन और भत्ते में कमी का प्रावधान किया जा सकता है। चूंकि इस समय कोई वित्तीय आपातकाल घोषित नहीं किया गया है, इसलिए यह कार्यालय ज्ञापन जारी नहीं किया जा सकता था। न्यायालय की टिप्पणियां अदालत ने कहा कि 1972 के डीए नियम बताते हैं कि महंगाई भत्ता और महंगाई राहत पाने का अधिकार केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किया गया है। इसे केंद्र सरकार द्वारा समय-समय पर निर्दिष्ट भी किया जा सकता है और सरकार वह शर्ते लगा सकती है, जिनको वह उपयुक्त समझती है। अदालत ने आगे कहा कि इस संबंध में कोई वैधानिक नियम नहीं है जो केंद्र सरकार को नियमित अंतराल पर महंगाई भत्ता या महंगाई राहत को बढ़ाने के लिए बाध्य करता हो। इसके अलावा केंद्र सरकार के कर्मचारियों या केंद्र सरकार के पेंशनरों को भी कोई ऐसा निहित अधिकार नहीं मिला हुआ है,जिसके तहत वह नियमित अंतराल पर बढ़ा हुआ महंगाई भत्ता या महंगाई राहत प्राप्त कर सके या मांग सके। अदालत ने यह भी कहा कि- 'जहां तक 1 जनवरी 2020 से प्रभावी 4 प्रतिशत महंगाई भत्ता या महंगाई राहत प्राप्त करने का संबंध है तो इस मामले में जारी किए गए कार्यालय ज्ञापन में इसे हटाने या खत्म करने की बात नहीं कही गई है। सिर्फ इतना कहा गया है कि इसे फिलहाल स्थगित किया जा रहा है और इसका भुगतान एक जुलाई 2021 के बाद किया जाएगा।' उक्त ओएम को जारी करने के अधिकार के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि इस विवादित ओएम में COVID19 महामारी का संदर्भ दिया गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रतिवादी ने सिर्फ उन्हीं प्रावधानों को लागू किया है जो आपदा प्रबंध अधिनियम में निहित हैं। संविधान के अनुच्छेद 360 के संबंध में याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए तर्क को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि ओम में राज्य के मामलों के संबंध में सेवा करने वाले किसी भी व्यक्ति के वेतन या भत्ते को काटने या कम करने की बात नहीं कही गई है। अदालत ने कहा कि- 'हमने ऑल इंडिया सर्विसेज (डीए) रूल्स 1972 के नियम 3 पर गौर किया है। उक्त नियम में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि केंद्र सरकार महंगाई भत्ता दिया जाने की पात्रता के संबंध में अपना निर्णय कुछ शर्तो के तहत ही ले सकती है। यानि ऐसा करने के लिए सरकार को पहले एक नया नियम बनाना होगा या एक राजपत्र अधिसूचना जारी करनी होगी। कानून में ऐसी किसी आवश्यकता का उल्लेख नहीं किया गया है।' इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व डॉ प्रदीप शर्मा और श्री हर्ष ने किया था।
शनिवार, 30 मई 2020
इंडिया" का नाम बदलकर " भारत" करो, ये अंग्रेजों की गुलामी का प्रतीक : सुप्रीम कोर्ट में याचिका
देश के नाम को इंडिया से " भारत" में बदलने की सीमा तक भारत के संविधान के अनुच्छेद 1 में संशोधन की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को सुनवाई स्थगित कर दी। जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने
मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अनुपलब्धता के कारण सुनवाई 2 जून के लिए स्थगित की। नमाह नामक व्यक्ति ने ये याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया है कि देश को "मूल" और "प्रामाणिक नाम" भारत द्वारा मान्यता दी जानी चाहिए। याचिका वकील राज किशोर चौधरी के माध्यम से दायर की गई है।याचिकाकर्ता ने कहा है कि अनुच्छेद 1 में संशोधन यह सुनिश्चित करेगा कि इस देश के नागरिक अपने औपनिवेशिक अतीत को "अंग्रेजी नाम को हटाने" के रूप में प्राप्त करेंगे, जो एक राष्ट्रीय भावना पैदा करेगा। "समय अपने मूल और प्रामाणिक नाम से देश को पहचानने के लिए सही है, खासकर जब हमारे शहरों का भारतीय लोकाचार के साथ पहचानने के लिए नाम बदल दिया गया है .... वास्तव में इंडिया शब्द को भारत के साथ प्रतिस्थापित किया जाना हमारे पूर्वजों द्वारा स्वतंत्रता की कठिन लड़ाई को उचित ठहराएगा।याचिका से अंश याचिकाकर्ता का कहना है कि "इंडिया" नाम को हटाने में भारत संघ की ओर से विफलता हुई है जो "गुलामी का प्रतीक" है। वह कहते हैं कि इससे जनता को "चोट" लगी है, जिसके परिणामस्वरूप "विदेशी शासन से कठिन स्वतंत्रता प्राप्त स्वतंत्रता के उत्तराधिकारियों के रूप में पहचान और लोकाचार की हानि" हुई है। अपनी दलीलों को प्रमाणित करने के लिए, याचिकाकर्ता ने 15 नवंबर, 1948 को हुए संविधान के मसौदे का उल्लेख करते हैं, जिसमें संविधान के प्रारूप 1 के अनुच्छेद 1 पर बहस करते हुए एम अनंतशयनम अय्यंगर और सेठ गोविन्द दास ने "इंडिया" की जगह " भारत, भारतवर्ष, हिंदुस्तान" नामों को अपनाने की वकालत की थी।
मंगलवार, 26 मई 2020
फंसे हुए मज़दूरों को क्या सुविधाएं मुहैया करवाई जा रही हैं, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्टेटस रिपोर्ट मांगी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुवार को राज्य सरकार से इस बात का ब्योरा देने को कहा कि वह उन मज़दूरों को क्या सुविधा उपलब्ध करवा रही है जो सैकड़ों मील चलकर अपने राज्य उत्तर प्रदेश पहुँच रहे हैं। राज्य में जो मज़दूर फंसे हुए हैं उनके बारे में भी राज्य सरकार से स्थिति रिपोर्ट मांगी गई है। न्यायमूर्ति अनिल कुमार और न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया की पीठ ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश दिया कि "प्रतिवादी के वक़ील को हम यह निर्देश देते हैं कि वह मामले की अगली सुनवाई के समय तक एक हलफनाम दायर कर यह बताएं कि वह उन श्रमिकों को क्या सुविधाएं दे रही है जो उत्तर प्रदेश स्थित अपने घर जाना चाहते हैं, इनमें से कुछ रास्ते में हैं और कुछ उत्तर प्रदेश में फंसे हुए हैं।" याचिकाकर्ता दिलीप कुमार मिश्रा ने अदालत से केंद्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश देने का आग्रह किया है कि वह यह सुनिश्चित करे कि जो मज़दूर सड़कों पर चल रहे हैं वे भूखे न रहें और उनको भोजन, पानी और दवा और चिकित्सा सुविधा के साथ साथ उन्हें अपने गांव तक मुफ़्त में पहुंचाया जाए। इस जनहित
याचिका का विरोध करते हुए एएसजी एसबी पांडेय ने कहा कि प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फंसे हुए श्रमिकों के बारे में भारत सरकार द्वारा घोषित स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोटकॉल (एसओपी) के अनुरूप सरकार पहले से ही कई क़दम उठा रही है। उन्होंने 5 मई 2020 को जगदीप एस छोकर बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला दिया जिसमें कहा गया कि केंद्र और राज्य सरकारें श्रमिकों का ख़याल रखने के लिए सभी ज़रूरी कदम उठा रही है। इस संदर्भ में हर्ष मंदर एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले का हवाला भी दिया गया कि देश बहुत ही अस्वाभाविक समय से गुजर रहा है और इससे जुड़े लोग उनके लिए जो भी सबसे अच्छा है वह कर रहे हैं।
शनिवार, 23 मई 2020
दिल्ली हाईकोर्ट ने लाॅकडाउन के कारण किराए पर रोक लगाने की मांग को किया खारिज, भुगतान की तारीख को आगे बढ़ाने की दी अनुमति
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि किराएदार प्राकृतिक आपदा या फोर्स मेज्योर का आह्वान करते हुए लाॅकडाउन के कारण किराए पर रोक लगाने की मांग नहीं कर सकते हैं, विशेषतौर पर ऐसी स्थिति में जब किराए के परिसर पर उनका लगातार कब्जा हो या उसमें रह रहे हों। हालांकि किराएदार को कुछ राहत प्रदान करते हुए न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की एकल पीठ ने कहा है कि लाॅकडाउन के कारण किराए के भुगतान की अनुसूची में कुछ स्थगन या छूट दी जा सकती है।यह आदेश उस आवेदन के संबंध में दिया गया है,जिसमें COVID-19 लॉकडाउन संकट में किरायेदारों को किराए के भुगतान के छूट देने से संबंधित
विभिन्न मुद्दों को उठाया गया था और इसी से जुड़े कानूनी सवाल भी इस आवेदन में उठाए गए थे। इस आवेदन में हाईकोर्ट द्वारा 2017 में एक आदेश के तहत पारित दिशा-निर्देश को निलंबित करने की मांग की गई थी। उस आदेश में हाईकोर्ट ने खान मार्केट,नई दिल्ली में स्थित एक संपत्ति का प्रतिमाह 3.5 लाख रुपये किराया देने का निर्देश दिया था और इस शर्त के साथ ही किराया नियंत्रक न्यायालय द्वारा पारित बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी थी। आवेदक ने COVID-19 लॉकडाउन का हवाला देते हुए किराए को निलंबित करने या उस पर रोक लगाने की मांग की थी। Also Read - छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक दिन की सैलरी PM CARES फंड और मुख्यमंत्री राहत कोष में दान की इस आवेदन की मैरिट पर आगे बढ़ने से पहले, अदालत ने निम्नलिखित प्रारंभिक अवलोकन किया और कहा कि- ''सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन किरायेदारों को छूट का दावा करने या किराए के भुगतान से छूट या किराए के निलंबन की मांग करने का हकदार बनाता है? इससे देश भर में हजारों मामलों उत्पन्न हो जाएंगे। हालांकि, इन मामलों को संबोधित करने के लिए कोई मानक नियम निर्धारित नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन कुछ व्यापक मापदंडों को ध्यान में रखा जा सकता है। ताकि वह तरीका निर्धारित किया जा सकें जो इस तरह के मुद्दों का समाधान कर सकें।' किरायेदार के वकील ने किराए में छूट देने या कुछ आंशिक राहत जैसे कि भुगतान को स्थगित करने की मांग की थी। उसने दलील दी थी कि लॉकडाउन ने व्यवसाय को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। दूसरी ओर मकान मालिक के वकील ने तर्क दिया कि केवल व्यवसाय में व्यवधान के आधार पर किरायेदारों को मासिक भुगतान करने से छूट नहीं दी जा सकती है क्योंकि मकान मालिक भी किराए के परिसर की आय पर निर्भर रहता है। इन दलीलों को ध्यान में रखने के बाद अदालत ने भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 32 और 56 का विश्लेषण किया। उसके बाद अदालत ने कहा कि धारा 56 ,जो कि कर्तव्य को निभाने की असंभावना के कारण अनुबंध की निष्फलता के बारे में बताती है। परंतु यह धारा लीज एग्रीमेंट पर लागू नहीं होती है। इसी तरह यह धारा उन अनुबंधों पर भी लागू नहीं होती है जो ''निष्पादित अनुबंध'' है, न कि ''निष्पादन योग्य अनुबंध।'' अदालत ने कहा कि ''मूल सिद्धांत यह होगा कि यदि अनुबंध में किसी प्रकार की छूट या किराए के निलंबन के लिए कोई खंड बनाया गया हैै, तो ही किरायेदार इसके लिए दावा कर सकता है। इसी तरह अनुबंध में फोर्स मेज्योर या प्राकृतिक आपदा क्लॉज भी धारा 32 के तहत प्रासंगिकता रखता है। जो किरायेदार को यह दावा करने की अनुमति दे सकता है कि वह अनुबंध हो निरस्त कर दे और परिसर को खाली कर दें। हालांकि, यदि किरायेदार परिसर को अपने पास रखना चाहता है और कोई खंड इस मामले में किरायेदार को कोई राहत नहीं देता है तो उसे किराया या मासिक शुल्क देना ही होगा।'' इसके बाद अदालत ने फोर्स मेज्योर सिद्धांत के मामले को देखा। न्यायालय ने संपत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 108 (बी) (ई) को देखने के बाद कहा कि उक्त प्रावधान केवल संविदात्मक शर्त के अभाव या अनुपस्थिति में लागू होता है। अदालत ने यह भी कहा कि 'उपर्युक्त कानूनी स्थिति के मद्देनजर, COVID-19 प्रकोप के कारण घोषित किए गए लॉकडाउन के चलते परिसर का अस्थायी गैर-उपयोग भी ,टीपीए की धारा 108 (बी) (ई) के तहत लीज को निरस्त करने की व्याख्या के रूप में नहीं माना जा सकता है।'
यह कहने के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि दफनाने से कोरोना वायरस फैलता है", बॉम्बे हाईकोर्ट ने बांद्रा कब्रिस्तान में शव दफनाने के खिलाफ याचिका खारिज
बॉम्बे हाईकोर्ट ने शुक्रवार को मुंबई के कुछ निवासियों द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया है, जिन्होंने ग्रेटर मुंबई नगर निगम द्वारा COVID -19 पीड़ितों को दफनाने के लिए बांद्रा में तीन कब्रिस्तानों का इस्तेमाल करने की अनुमति को चुनौती दी थी, क्योंकि इससे एक समुदाय में भय फैल गया था।
मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एसएस शिंदे की खंडपीठ ने पाया कि याचिकाकर्ता के दावे का समर्थन करने के लिए कोई वैज्ञानिक डेटा नहीं है कि वायरस शव दफनाने से फैलता है और यह माना जाता है कि निगम को इस तरह की अनुमति देने और कब्रिस्तानों को तदनुसार सीमांकित करने का अधिकार है।
न्यायालय ने कहा कि शवों का सभ्य रूप से निपटान करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक पहलू है, और कहा कि याचिकाकर्ता "असंवेदनशील" हैं।
कोर्ट ने कहा कि हमने याचिकाकर्ताओं को दूसरों की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील पाया है।
कोर्ट ने कहा,
"एक सभ्य दफन का अधिकार, व्यक्ति की गरिमा के अनुरूप, संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत जीवन के अधिकार के एक पहलू के रूप में मान्यता प्राप्त है।
इस प्रकार, ऐसा कोई कारण नहीं है कि इस संकट अवधि के दौरान किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर इस कारण कि वह COVID-19 संक्रमण का संदिग्ध / पुष्टि वाला था, उसे उन सुविधाओं का हकदार नहीं माना जाए, जिसका हकदार वह सामान्य परिस्थितियों में होता।"
कोर्ट ने बुधवार को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए रिट याचिका पर सुनवाई की और मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा था।
पीठ ने कहा कि हालांकि यह अनुकरणीय लागत लगाने के लिए एक उपयुक्त मामला है, लेकिन क्योंकि COVOD -19 के फैलने की आशंका के परिणामस्वरूप मौजूदा स्थितियों के कारण याचिकाकर्ता डर गए थे, इसलिए कोई जुर्माना नहीं लगा रहे।
कोर्ट ने एमसीजीएम को COVOD -19 पीड़ितों के शवों को दफनाने के लिए दिशानिर्देशों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
इससे पहले 4 मई को सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर सुनवाई से इनकार करते हुए इसे बॉम्बे हाईकोर्ट के पास भेजा था।
जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने इस मामले को बॉम्बे हाईकोर्ट के पास भेजा और कहा है कि हाईकोर्ट दो सप्ताह के भीतर मामले का निपटारा करे।
पीठ ने कहा कि चूंकि बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला अंतरिम था, इसलिए ये उचित होगा कि हाईकोर्ट ही इस मामले की सुनवाई करे।
गौरतलब है कि मुंबई निवासी प्रदीप गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर बॉम्बे हाईकोर्ट के 27 अप्रैल के एक अंतरिम आदेश को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने बांद्रा पश्चिम स्थित तीन कब्रिस्तानों में कोरोना से मरने वाले लोगों को दफनाए जाने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।
गांधी ने यह आशंका जताई थी कि कोरोना से मरने वाले लोगों को दफनाने से आसपास के इलाकों में वायरस का संक्रमण फैलने का खतरा है क्योंकि इनके आसपास घनी आबादी है और करीब तीन लाख लोग रहते हैं। इसलिए इन लोगों को कहीं और दफनाया जाए जहां आबादी कम हो।
शुक्रवार, 22 मई 2020
जोश में निकाली थी बारात लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि 60 दिन बाद रोते बिलखते घर लौटे
कानपुर. एक-दो दिन नहीं बल्कि 60 दिन तक मेहमान-नवाजी कराने वाली अनोखी बारात का किस्सा कानपुर व आसपास के क्षेत्रों में खूब चर्चा का विषय बन गया है. यहां पर एक बारात लॉकडाउन (Lockdown) की वजह से 60 दिन बाद अब वापस आ पाई. चौबेपुर के हकीम नगर गांव में उस वक्त मजमा लग गया जब 60 दिन बाद बारात वापस गांव लौटी अपनों के बीच पहुंचने के बाद ये बाराती और घर वाले मिलकर खूब बिलख-बिलख के रोये भी हालांकि ये आंसू ख़ुशी के थे.
जनता कर्फ्यू फिर लॉकडाउन
दरअसल यहां के रहने वाले महमूद खान के पुत्र इम्तियाज का रिश्ता बिहार के बेगूसराय बलिया प्रखंड फतेहपुर गांव में मोहम्मद हामिद की भांजी खुशबू के साथ तय हुआ था. बारात लेकर गांव से मोहम्मद खान बिहार पहुंचे, 21 मार्च को शादी हुई और 22 मार्च को बारातियों की मेहमान नवाजी के बाद विदाई की तैयारी थी लेकिन 22 मार्च को जनता कर्फ्यू (Public Curfew) के कारण बारात वहीं रुक गई और फिर देशव्यापी लॉकडाउन (Lockdown) की घोषणा हो गई जिसके बाद से पूरा परिवार 9 बारातियों के साथ वहीं पर रुक गया.
कभी रोटी-चटनी तो कभी सब्जी-चावल पर गुजरे दिन
बारातियों के कुछ दिन तो अच्छे गुजरे मगर कुछ दिन बाद बराती भी घर के सदस्य जैसे ही हो गए. लड़की के परिवार की भी आर्थिक हालत कुछ अच्छी नहीं थी, जैसे-तैसे रोटी-चटनी तो कभी सब्जी-चावल तो कभी दाल-चावल खाकर बारात ने दिन गुजारे. जब पूरी बारात के दूसरे प्रदेश में फंसने की खबर गांव पहुंची तो क्षेत्र के ही हिमांशु उर्फ गुड्डू ने केंद्र सरकार से गुहार लगाई और सभी को गाड़ी भेज कर लाया जा सका. इस बारात की वापसी देखने के लिए पूरे गांव में मजमा लग गया, सभी हैरत में थे कि आखिर 60 दिन तक कोई बारात कैसे रुक सकती है. चौबेपुर स्वास्थ्य केंद्र की टीम ने सभी बारातियों के स्वास्थ्य की जांच कर सभी को होम क्वारेन्टाइन (Home Quarantine) कर दिया है.
लड़के के पिता का कहना है कि लड़की की मां ने गांव में आसपास उधार लेकर जैसे-तैसे उनको इतने दिनों तक खाना खिलाया जबकि उनके आर्थिक हालात भी अच्छे नहीं थे. हालांकि अब बाराती घर तो जरूर आ गए हैं मगर मोहल्ले वाले ऐसी बारात से तौबा कर रहे हैं. वहीं क्षेत्र के रहने वाले एक समाजसेवी का कहना है कि क्षेत्र के सभी लोगों ने सहयोग करके बस करके पैसे इकट्ठा करके इन बारातियों को यहां पर बुलाया है जिसके लिए सभी बधाई के पात्र हैं.
वर्चुअल कोर्ट से न्याय पाने में असमर्थ हैं मुविक्कल'': बार काउंसिल ऑफ इंडिया करेगी अदालतों में नियमित सुनवाई फिर से शुरू करने पर परामर्श
मुविक्कलों को वर्चुअल कोर्ट के माध्यम से न्याय नहीं मिल पा रहा है, यह कहते हुए बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने बुधवार को निर्णय किया है कि वह सभी अदालतों में नियमित सुनवाई फिर से शुरू करने के मामले में परामर्श करने लिए देशभर के वकीलों और वादकारियों से बातचीत करेगी। बीसीआई की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया है कि ''वह (बीसीआई) न्यायालयों में नियमित सुनवाई को फिर से शुरू करने के बारे में सबकी राय जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वरिष्ठ और अन्य अधिवक्ताओं से परामर्श करेगी। एक तरफ COVID 19 के मामले दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वादियों और अधिवक्ताओं की समस्याएं बढ़ रही हैं।'' 20 मई को हुई अपनी बैठक में बीसीआई की जनरल काउंसिल ने इस संबंध में एक प्रस्ताव पास किया है। इस मामले में स्टेट बार काउंसिल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ,सभी हाईकोर्ट और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट बार एसोसिएशन के वरिष्ठ अधिवक्ताओं और अन्य अधिवक्ताओं की राय मांगी जाएगी। बीसीआई का कहना है कि कुछ हाईकोर्ट में तत्काल मामलों को लेकर 'पिक एंड चूज' की नीति अपनाने संबंधी शिकायतें उनके पास आ रही हैं। वहीं असंतोषजनक वाई-फाई कनेक्शन और अन्य तकनीकी समस्याओं के कारण वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए की जा रही सुनवाई में भी लगाकर समस्याएं आ रही है। इस संबंध में भी उनको कई शिकायत मिली हैं। बीसीआई ने कहा कि ''हम इस प्रक्रिया में प्रभावी सुनवाई की उम्मीद नहीं कर सकते है। वास्तव में देश के विभिन्न न्यायालयों में क्या चल रहा है, जनता और अधिवक्ता उसके बारे में अनभिज्ञ हैं।'' बीसीआई ने कई बार एसोसिएशन और वरिष्ठ अधिवक्ताओं की राय भी साझा की है, जिनके जरिए उनको पता चला है कि ''कुछ लोग लॉकडाउन (लगभग बंद पड़ी अदालतों का ) का अनुचित लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं। हाई-प्रोफाइल संबंध रखने वाले कुछ वकील और लाॅ-फर्म कानूनी पेशे को धीरे-धीरे हाईजैक करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि पूरी प्रणाली आम अधिवक्ताओं के हाथ से बाहर जा रही है। परिषद ने कहा कि वह पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ अदालतों में नियमित सुनवाई या शारीरिक कामकाज को फिर से शुरू करने के मामले में सुझाव एकत्रित करने के लिए स्टेट बार काउंसिल और बार एसोसिएशन के माध्यम से एक जनमत सर्वेक्षण आयोजित करने जा रही है। परिषद ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सभी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों से आग्रह किया है कि वह वास्तविक कठिनाइयों पर ध्यान दें। बीसीआई ने कहा कि "यह विनम्रतापूर्वक प्रस्तुत किया जा रहा है कि बार से परामर्श किए बिना और बार को विश्वास में लिए बिना, यदि कोई निर्णय लिया जाता है तो वह सफल नहीं हो पाएगा।'' बीसीआई ने कहा कि उन्होंने यह भी प्रस्ताव पास किया है कि वह प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्रियों से अनुरोध करेंगे कि वे ''जरूरतमंद वकीलों की सहायता करें और उनके पेशेवर नुकसान को दूर करने में उनकी मदद करें।'' ''इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया, स्टेट बार काउंसिल और देश के बार एसोसिएशन अपनी क्षमता के अनुसार इस तरह के जरूरतमंद अधिवक्ताओं की मदद करते रहे हैं। हालांकि, इन संगठनों के संसाधन सीमित हैं।'' उन्होंने कहा कि ''इसलिए जब तक सरकार उनके बचाव में नहीं आती है, तब तक उनकी समस्याओें का समाधान नहीं होने वाला है। देश के सभी बार एसोसिएशनों को एक प्रस्ताव पारित करके स्थानीय सांसद, विधायकों और जिला कलेक्टरों के माध्यम से प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्रियों को भेजना चाहिए।'' बीसीआई ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश और सभी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों से संपर्क करके उनसे यह आग्रह किया जाएगा कि वह वकीलों की उन समस्याओं पर विचार करें,जिनका सामना वकील अदालतों में मामलों की सुनवाई के दौरान वास्तव में कर रहे हैं। उन्होंने यह भी निर्णय किया है कि वह सीजेआई एसए बोबड़े और न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ से भी अनुरोध करेंगे कि वे संबंधित अधिकारियों को आवश्यक निर्देश दें कि ''वर्चुअल सुनवाई के समय उन सभी अधिवक्ताओं को लिंक प्रदान करें ,जो मामले से संबंधित हैं या जो वरिष्ठ अधिवक्ता की सहायता कर रहे हैं या सुनवाई में भाग ले रहे हैं।''
एन राम और अन्य के खिलाफ दायर मानहानि के मामले रद्द किए मद्रास हाईकोर्ट
प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट ने बुधवार को संपादक-पत्रकार एन राम,एडिटर-इन-चीफ, दि हिंदू, सिद्धार्थ वरदराजन, नक्कीरन गोपाल आदि के खिलाफ दायर आपराधिक शिकायतों को खारिज कर दिया। इन सभी के खिलाफ 2012 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के खिलाफ कुछ रिपोर्टों के मामले में "राज्य के खिलाफ आपराधिक मानहानि" का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की गई थी। शिकायत में कहा गया था कि रिपोर्ट राज्य सरकार के एक पदाधिकारी की मानहानि के बराबर है। लोक अभियोजक ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 199 (2) के तहत सत्र न्यायालय के समक्ष शिकायतें दायर की थीं। धारा 199 (2) सीआरपीसी भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 के तहत राज्य / संवैधानिक पदाधिकारियों के खिलाफ मानहानि के अपराधों के लिए एक विशेष प्रक्रिया का निर्धारण करती है। मौजूदा मामले में लोक अभियोजक ने राज्य की ओर से सत्र न्यायालय शिकायत दायर की थी। सामान्य रूप से मजिस्ट्रेट कोर्ट के समक्ष सामान्य मानहानि के मुकदमे दायर किए जाते हैं। हाईकोर्ट में दायर रिट याचिकाओं में उन सरकारी आदेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, जिनके तहत सरकारी अभियोजक को रिपोर्टों के संबंध में धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत शिकायत दर्ज करने की मंजूरी दी गई। जस्टिस अब्दुल कुद्धोज की पीठ ने कहा कि राज्य के लिए, निजी पक्षों की तुलना में, नागरिकों के खिलाफ आपराधिक मानहानि शुरू करने की उच्च मानदंड हैं। कोर्ट ने 152-पृष्ठ के फैसले में कहा, "आपराधिक मानहानि कानून आवश्यक मामलों में एक प्रशंसनीय कानून है, लोक सेवक/संवैधानिक पदाधिकारी अपने
प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ राज्य के जरिए इसका इस्तेमाल अपनी खुन्नस के लिए नहीं कर सकते। लोक सेवकों/ संवैधानिक पदाधिकारियों को आलोचना का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। ....राज्य आपराधिक मानहानि के मामलों का उपयोग लोकतंत्र को कुचलने नहीं कर सकता है।" कोर्ट ने कहा कि राज्य को आलोचना के मामलों में उच्च सहिष्णुता का प्रदर्शन करना चाहिए, और मुकदमे शुरु करने के लिए "आवेगात्मक" नहीं हो सकता है। "राज्य को मानहानि के मामलों में एक आम नागरिक की तरह आवेगी नहीं होना चाहिए और लोकतंत्र को कुचलने के लिए धारा 199 (2) सीआरपीसी को लागू नहीं करना चाहिए। केवल उन्हीं मामलों में जहां पर्याप्त सामग्री हो और जब धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत अभियोजन अपरिहार्य है, उक्त प्रक्रिया को लागू किया जा सकता है।" राज्य की तुलना "अभिभावक" से करते हुए कोर्ट ने कहा, "जहां तक मानहानि कानून का संबंध है, राज्य सभी नागरिकों के लिए अभिभावक की तरह है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों की ओर से अपमान का सामना करना सामान्य है। अपमान के बावजूद, माता-पिता अपने बच्चों को आसानी से नहीं छोड़ते। दुर्लभ मामलों में ही ऐसा होता है जब बच्चों का चरित्र और व्यवहार गैरकानूनी हो जाता है, और माता-पिता ने उन्हें छोड़ देते हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में जस्टिस दीपक गुप्ता, पूर्व जज, सुप्रीम कोर्ट, और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जज, सुप्रीम कोर्ट के हालिया भाषणों का हवाला भी दिया था, जिसमें उन्होंने लोकतंत्र में असंतोष के महत्व पर रोशनी डाली थी और विरोध की आवजों को कुचलने के लिए आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल की बढ़ती प्रवृत्ति की आलोचना की थी। कोर्ट ने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक मानहानि के उपयोग के लिए तय सिद्धांतों का उल्लेख किया। याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी थी, हालांकि हाईकोर्ट ने उस पहलू पर विचार नहीं किया, क्योंकि 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट इसकी वैधता पर विचार कर चुका था। दो हफ्ते पहले, मद्रास हाईकोर्ट ने इकोनॉमिक टाइम्स के एक संपादक और रिपोर्टर के खिलाफ आपराधिक मानहानि की कार्यवाही को रद्द कर दिया था और कहा था कि मात्र रिपोर्टिंग में गलतियां मानहानि का आधार नहीं हो सकती हैं। धारा 199 (2) के तहत सत्र न्यायालय द्वारा जांच का स्तर आंकड़ों की जांच करने के बाद कोर्ट ने कहा कि वर्ष 2012 से 2020 तक विभिन्न सत्र न्यायालयों में 226 मामले लंबित है। सत्ता में कोई भी राजनीतिक दल रहा हो, धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत मामले दर्ज किए गए हैं। अदालत ने कहा कि धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत शिकायतों के यांत्रिक दाखिले के कारण, कभी-कभी सत्र न्यायालयों में मुकदमो की भरमार हो जाती है। इस पृष्ठभूमि में, कोर्ट ने सत्र न्यायाधीशों को याद दिलाया कि उन्हें राज्य द्वारा दायर आपराधिक मानहानि की शिकायतों के संबंध में उच्च स्तर की जांच करनी चाहिए। लोक अभियोजक पोस्ट ऑफिस की तरह काम नहीं कर सकते न्यायालय ने कहा कि लोक अभियोजक को राज्य के निर्देशों पर शिकायत दर्ज करने के लिए "डाकघर" की तरह काम नहीं करना चाहिए, और शिकायत दर्ज करने से पहले स्वतंत्र रूप से आरोपों की जांच करनी चाहिए। मानहानि के तत्व गायब हैं न्यायालय ने उल्लेख किया कि धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत सरकारी वकील के जरिए मुकदमा चलाने के लिए आवश्यक मुख्य तत्व अर्थात् "राज्य की मानहानी" ही गायब होता है। सभी मामलों में, सरकारी वकील को मुकदमे की स्वीकृति प्रदान करते समय, संबंधित अनुमोदन आदेश इस मसले पर पूरी तरह चुप रहता है कि क्या राज्य को लोकसेवक / संवैधानिक पदाधिकारी उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के दौरान के कथित मानहानि के आधार पर बदनाम किया गया है। मीडिया को आत्म-नियमन करना चाहिए कोर्ट ने मीडिया को आत्म-नियमन का महत्व समझाते हुए कहा- "हमारे राष्ट्र ने हमेशा मीडिया की भूमिका का सम्मान किया है। उनकी स्वतंत्रता और सच्ची रिपोर्टिंग को सर्वोच्च सम्मान दिया गया है। लेकिन बीते कई वर्षों से मीडिया सहित लोकतंत्र के हर क्षेत्र में क्षरण हो रहा है। अगर इसे जल्द से जल्द खत्म नहीं की गई तो यह आग की तरह फैल जाएगाी, जिससे हमारे लोकतंत्र को भारी नुकसान होगा। " केस का विवरण टाइटल: थिरु एन राम, एडिटर-इन-चीफ, "द हिंदू" बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और जुड़े मामले कोरम: जस्टिस अब्दुल कुद्धोज प्रतिनिधित्व: वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस रमन, आई। सुब्रमण्यन, अधिवक्ता पीटी पेरुमल, प्रशांत राजगोपाल, एस. एलम्भारती, एम स्नेहा, पी कुमारेसन, बीके गिरिश नीलकांतन ( याचिकाकर्ताओं के लिए)। मदन गोपाल राव, केंद्र सरकार की ओर से, एसआर राजगोपालन, अतिरिक्त महाधिवक्ता, साथ में अधिवक्ता के रविकुमार।
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